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________________ सम्पचारिख-चिन्तामणिः भावकके चार शिक्षाक्तोंमे परिगणित किया है परन्तु पश्चाद्वर्ती आचार्योने वतोमात्रके लिये आवश्यक जानकर उसका स्वतन्त्र वर्णन किया है। निरय सल्लेखना और पश्चिम सल्लेखनाके भेदसे सल्लेखना के दो भेद हैं। निरन्तर सल्लेखनाकी भावना रखना नित्य सल्लेखना है और जीवनका अन्त मानेपर मल्लेखना करना पश्चिम सल्लेखना है। अमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थसिद्ध्यपायमें इसका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनोया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ।। १७५ ॥ अर्थात् यह एक पश्चिम सल्लेखना ही मेरे धर्मरूपी धनको मेरे साथ ले जानेमे समर्थ है। इसी भावको लेकर सल्लेखना-प्रकरणके प्रारम्भमे लौकिक वैभव. का दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया गया है। दृष्टान्त दृष्टान्तमात्र है। सल्लेखना करनेवाले मुनि अथवा श्रावकको लोकिक सम्पदाको साथ ले जानेको भावना नही होती, क्योंकि लौकिक भोगोपभोगोको आकाक्षा को तो आचार्योने निदान नामका अतिचार कहा है। भोगोपभोगके प्रति क्षपकको आकाक्षा उत्पन्न करना दृष्टान्तका प्रयोजन नहीं है। सल्लेखना आत्मघात नही है। आगममे इसके तोन भेद बतलाये हैं१ भक्तप्रत्याख्यान, २ इंगिनोमरण और ३ प्रायोपगमन। भक्तप्रत्याख्यानमे क्षपक आहार-पानीका यम अथवा नियम रूपसे त्याग करता है तथा शरीरको टहल स्वयं अथवा अन्यसे करा सकता है। इगिनो. मरणमे शरोरको टहल स्वय कर सकता है, दूसरेसे नहो कराता और प्रायोपगमनमे न स्वयं करता है न दूसरेसे कराता है।
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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