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________________ परिशिष्ट यह अविपाक निर्जरा हो कल्याणकारिणी है परिणामोकी विशुद्धतासे कदाचित् अचलावली के बाद ही बद्धकर्म खिर जाते हैं, इसकी उदीरणा संज्ञा है | पृष्ठ ११७ पर प्रभावात पसां केचिदाबाधापूर्वमेव हि । निजीर्णायत्र जायन्ते सा मता ह्यविपाकजा ॥ ८७ ॥ श्लोकमे आबाघापूर्वमेवहिके स्थानपर 'उदयात्पूर्वमेव हि पाठ उचित लगता है । अनुवाद में भी 'आबाधा के पूर्व ही' के स्थानपर 'उदयकालके पूर्व' ऐसा पाठ उचित है। शुद्धिपत्रमे यह संशोधन देने से रह गया है। आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोंको आबाधाका नियम उदयको अपेक्षा यह है कि एक कोड़ा-कोड़ी सागरको स्थितिपर सौ वर्षको आधा पडतो है । अर्थात् १०० वर्ष तक वे कर्मप्रदेश सत्ता मे रहते हैं, फल नहीं देते । १०० वर्षके बाद निषेक-रचनाके अनुसार फल देते हुए स्वयं खिरने लगते हैं। आयुकर्मको आबाधा एक कोटि वर्षके त्रिभागसे लेकर असक्षेपाद्धा आवलो प्रमाण है । उदीरणाको अपेक्षा कर्मो को आबाधा एक अचलावली प्रमाण है । सल्लेखना श्रावक हो, चाहे मुनि, सल्लेखना दोनो के लिये आवश्यक है । उमास्वामी महाराजने लिखा है- 'मारणान्तिकी सल्लेखना जोषिता' - व्रतो मनुष्य मरणान्तकालमे होने वाली सल्लेखनाको प्रोतिपूर्वक धारण करता है । मूलाराधना तथा आराधनासार आदि ग्रन्थ सल्लेखनाके स्वतन्त्र रूपसे वर्णन करनेवाले ग्रन्थ हैं । इनके सिवाय प्राय. प्रत्येक श्रावकाचारमे इसका वर्णन आता है। प्रतीकाररहित उपसर्ग, दुर्भिक्ष अथवा रोग आदिके होने पर गृहोतसंयमकी रक्षाकी भावनासे कषाय और कायको कृश करते हुए समताभावसे शरीर छोड़ना सल्लेखना है । इसीको संन्यास अथवा समाधिमरण कहते हैं । दुक्खक्खयो कम्मrखयो समाहिमरण व बोहिलाहो य । मम होऊ जगदबांधव तव जिणवरचरणसरणेण ॥ अर्थात् दुःखका क्षय तब तक नही होता जब तक कि कमोंका क्षय नही होता, कर्मोंका क्षय तब तक नहीं होता जब तक समाधिमरण नही होता और समाधिमरण तब तक नही होता जब तक बोधिरत्नत्रयको प्राप्ति नही होती। इन चार दुर्लभ वस्तुओकी प्राप्ति जिनदेवके चरणोको शरणसे प्राप्त होती है। कुन्दकुन्द स्वामीने सल्लेखनाको गरिमा प्रकट करते हुए इसे
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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