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________________ १४४ सम्यचारित्र-चिन्तामणिः द्वादशप्रकाशः देशचारित्राधिकार मङ्गलाचरणम् यज्ज्ञानमार्तण्डसहलरश्मि प्रकाशिताशेषदिगन्तराले। न विद्यते किश्चिदपि प्रकाश विजितं वस्तु समस्तलोके ॥ १॥ यश्चात्र नित्यं गतरागरोषः शुदाम्बराभः सततं विभाति । स वीर नाथो मम बोधरम्य रश्मिप्रसारेऽवहित. सवा स्यात् ॥ २॥ अर्थ-जिनके ज्ञानरूपो सूर्यको हजारो किरणोके द्वारा समस्त दिशाओके अन्तराल-मध्यभाग प्रकाशित हो रहे है । ऐसे समस्त लोकमे कोई पदार्थ अप्रकाशित नहो रहा था अर्थात् जो सर्वज्ञ थे और जो नित्य ही रागद्वेषसे रहित होनेसे शुद्ध आकाशके समान सदा सुशोभित थे ऐसे महावीर भगवान् मेरे ज्ञानको रमणीय किरणोके प्रसारमे सदा तत्पर रहे ॥ १.२॥ __ भावार्थ-सर्वज्ञ और वीतराग भगवान् महावीरका पुण्य स्मरण हमारी ज्ञानवृद्धिमे सहायक हो। आगे देशचारित्रका वर्णन करते हैं अथाने देशचारित्रं किञ्चिवत्र प्रवक्ष्यते । हिताय हतशक्तीनां पूर्णचारित्रधारणे ॥ ३ ॥ देह ससार निविण्णः सम्यक्त्वेन विभूषितः । कश्चिद् भव्यतमो जीवस्तीर्ण प्राय भवार्णवः॥ ४ ॥ हिसास्तेयानताब्रह्म द्विविधग्रन्थराशितः। देशतो विरलोभूत्वा देशचारित्रमश्नुते ॥ ५॥ अर्थ-अब आगे पूर्णचारित्र धारण करनेमे शक्तिहीन मनुष्योके हितके लिए कुछ देशचारित्र कहा जायगा। जो संसार और शरीरसे उदासीन है, सम्यग्दर्शनसे सुशोभित है तथा जिसने भव-सागरको प्रायः पार कर लिया है ऐसा कोई श्रेष्ठ भव्य जीव, हिंसा, असत्य,
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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