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________________ गरह तक गुणस्थान होते हैं और केवल दधनमें अन्तके दो मुगस्थान माने जाते हैं। कृष्ण, मोल मोर कापोत लेश्या प्रयमसे चतुर्थ गुणस्थान तक होती है। पोत और पप केश्या प्रथमसे सप्तम तक होती है और शुक्ल लेश्या प्रथमसे तेरहवें गुणस्थान तक होती है। भव्यत्व मार्गमामे सभी गुणस्थान होते हैं परन्तु सदा संसारमें ही निवास करने वाली बभव्यत्य मागंणामें नियमसे पहला ही गुणस्थान होता है ॥ २८-३१॥ आगे सम्यक्त्व, संशो और आहारक मार्गणामें गुणस्थान बताते हैं माधोपसम्बवे सायोपधिक तथा ॥ ३२ ॥ बतुलमानतानि गुणस्थानानि सन्ति । मायिकेतुबतुविनिहिलाम्यापि भवन्ति हि ॥ ३३ ॥ द्वितीयोपशमे मे तुविकारशावधिम् । समिणि गुणधामानि भवन्ति वारशावधिम ॥ ३४॥ मसतिमि मवेशाचं केवलिमोनास्ति तापम । मनाहारे बवेवावं द्वितीयं च चतुर्थकम् ॥ ३५ ॥ चतुर्व व विशेषमाहारस्थ निरोषतः। आहारके तु बोभ्यानि गाथान्येव त्रयोदश ।। ३६ ।। इत्थं - मार्गनास्थाने गुणस्थाननिदर्शनमः । संक्षेपाविहितं चिन्स्यं ध्यानस्पेन सुयोगिना ॥ ३७॥ एवं चिन्तयश्चितं विषयेभ्यो निवर्तते । निर्जरा विपुला च स्यात् कर्मणा कुम्भवापिनाम् ॥ ३८॥ वर्ष-प्रथमोपशम सम्यक्त्व और क्षायोपामिक सम्यक्स्वमें चतुर्थसे लेकर सप्तम तक गुणस्थान होते हैं। क्षायिक सम्यग्दर्शनमें चतुर्थसे लेकर सभी गुणस्थान हैं और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें चतुर्षसे लेकर एकादश तक गुणस्थान होते हैं [सम्यक्त्व मार्गणाके भेद सम्यग्मिप्यात्वमे तृतीय, सासादनमें द्वितीय और मिथ्यात्वमे प्रथम गुणस्थान जानना चाहिये ] । संशी मार्गगामे प्रथमसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक बारह और असंशी मार्गणामें प्रथम गुणस्थान हो होता है [ सासावन गुणस्थानमें मरकर एकेन्द्रियोंमे उत्पन्न होनेवाले जोवोके अपर्याप्तक बच्चामें दूसरा गुणस्थान भी सम्भव है ] । केवलो भगवान के संगी और मसंजोका व्यवहाय नहीं होता है। अनाहारक मार्गणामें पहला, दूसरा, बोया और बौदहवां गुणस्थान होता है [समुद्घातको अपेक्षा तेरहवां मुणस्थान भी होता है ] | आहारक मार्गणामे आदिके तेरह
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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