SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम प्र १०७ अब वैराग्य वृद्धिके अर्थ अनुप्रेक्षाओंका वर्णन करते हुए प्रथम अनित्यानुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं वैराग्यस्थ प्रकर्षाय सुनिभिः कामनस्थित चिन्मयन्ते भावना नूनमनित्यस्वादि संहिताः ॥ २ ॥ नित्यं न विद्यते कचिद वस्तुलोकत्रये स्वचित् । भानुरुदेति यः प्रातः सायमस्तमुपैति सः ॥ ३॥ सुधांशुभिर्जगत्सर्वं सिवन्निन्दुरपि स्वयम् । प्रातर्भवति निर्वोप्तिः शुष्कपाण्डुपलाशवत् ॥ ४ ॥ न वृश्यते बली रामो लक्ष्मणो न बलाम्बितः । महाचक्रनितालिबसुन्धराः ॥ ५ ॥ भरताबा न दृश्यन्ते महीमागे बलवद्भिरुपासिता । क्व लुप्ता सा च सीवर्णी लङ्का बशमुखस्य हि ॥ ६ ॥ शिरःस्थाः श्यामला बालाः क्रियन्ते बरसा सिताः । मुखचन्द्रस्य सौम्बयं नश्यत् क्वापि प्रलीयते ॥ ७ ॥ बाहुबेतण्ड शुण्डाभो जातौ शुष्कमृणालयत् । जितमुक्ता मुखे दन्ताः प्राप्तान्ताः कुत्र संगताः ॥ ८ ॥ जोवनं जन्तुजातस्य शरवस्यवद् भङ्गुरम् । भगुरा धनसम्पत्तिः चला सौन्दर्यसम्पदा ।। ९ ।। वस्तुतएवं विमृश्यात्मन् स्वस्थो भव निरन्तरम् । देहाद भिन्नमवेहि स्वं ज्ञानानन्दस्वभावकम् ॥ १० ॥ सर्व ह्यनित्यमेतत् पर्यायार्थविवक्षया । निखिलं नित्यमेवस्याद् द्रव्यार्थस्य विवक्षया ॥। ११ ॥ अर्थ- वैराग्यको वृद्धिके लिये वनमे स्थित मुनिराज अनित्यत्व आदि भावनाओंका चिन्तवन करते हैं। तोनो लोकोमे कही कोई भो वस्तु नित्य नही है । जो सूर्य प्रातःकाल उदित होता है । वह सायं समय अस्तको प्राप्त हो जाता है। अमृतमय किरणोसे समस्त जगत्‌को सोचने वाला चन्द्रमा भी अपने आप प्रातःकाल सूखे पलाश पत्रके समान कान्तिरहित हो जाता है। न बलवान् राम दिखाई देते हैं और न बलिष्ठ लक्ष्मण । जिन्होने महाचकके द्वारा समस्त वसुधाको जीत लिया था तथा बड़े-बड़े बलवान् जिनकी सेवा करते थे ऐसे भरत आदि चक्रबर्ती दिखाई नहीं देते। रावणको वह सोनेको लंका कहा लुप्त हो गई। शिरके काले बाल वृद्धावस्थाके द्वारा शुक्ल कर दिये जाते हैं।
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy