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________________ सप्तम प्रकाश यथार्थाः सन्ति नास्त्पत्र संदेहावसरो मनाक । इत्थं श्रद्धानवाढ यत् निःशस्वं तदुच्यते ॥ १३ ॥ भोगोपभोगकामाया अमागे गतकाक्षाता। मुनीनां मलिनाङ्गादो मा स्याद् ग्लानेरभावता ॥ १४ ॥ सा सिद्धान्तविशेषज्ञमता निविचिकित्सता । देवे च देवता भासे धर्मे धर्मतरे तपा॥१५॥ यत्र वृष्टिर्न मूढा स्यात् सामता मूढष्टिता। प्रमावाद्देहशंथिल्यात रोगाद्वार्धक्यतोऽपि वा ॥१६॥ जातान् पस्मिनां दोषान् दृष्ट्वा तदुपगृहनम् । उपगृहननामादयं गङ्गं पञ्चमं मतम् ।। १७॥ सुधर्माच्च्यवतोमान् यस्मात्तस्माच्च कारणात् । स्थितीकरणमायोध्यं पुनस्तत्रैव बारणम् ॥ १८॥ सधर्मभिः सह स्नेहो गोर्वस इस शाश्वतः। वात्सल्यं तत्तु विज्ञेयं धर्मस्पंर्यविधायकम् ।।१९।। लोके प्रसरवज्ञान धर्मस्य विषये महत् । दूरीकृत्य प्रभावस्य स्थापनं स्यात्प्रमावना ॥२०॥ एतैरङ्गं सुपूर्ण स्यात् सम्यकत्व सुदृशां सदा । भवेदेषु प्रवृत्तिर्या सूरीणां हितकारिणाम् ॥ २१॥ स बोध्यो दर्शनाचारो यतिधर्मप्रभावकः। ज्ञानाचारमथो वच्मि सम्यग्ज्ञानस्य कारणम् ॥ २२ ॥ अर्थ-इस सम्यग्दर्शनके नि शडकत्व आदि आठ अङ्ग हैं। जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे हुए सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ वास्तविक हैं। इनमे सदेह का थोडा भी अवसर नहीं है। श्रद्धानमे इस प्रकारको जो दृढता है वह निःशकात्व अङ्ग कहलाता है। भोगोपभोगको आकाङ्क्षाका अभाव होना नि:काक्षित अङ्ग है। मुनियोके मलिन शरीर आदिमे जो ग्लानिका अभाव है बह जैनसिद्धान्तके विशेषज्ञविद्वानोके द्वारा निविचिकित्सा अङ्ग माना गया है। जहाँ देव और देवाभासमे धर्म तथा अधर्ममें दृष्टि मूढ नही होती है वह अमढ़ष्टि अङ्ग है । प्रमादसे, शरीरको शिथिलतासे, रोगसे, अथवा वृद्धावस्थासे उत्पन्न हुए धर्मात्माओके दोषोको देखकर उनका जो गोपन किया जाता है, वह सम्यग्दर्शनका उपग्रहन नामका पञ्चम अङ्ग है । जिस किसी कारणसे धर्मसे डिगते हुए मनुष्योको फिरसे उसोमे स्थिर कर देना स्थितीकरण अङ्ग है। सहधर्मी जनोके साथ गोवत्सके समान जो
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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