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________________ ( १०) मुद्रण कला का प्रभाव-अस्तु छापेखाने के प्रचार के पश्चात् भारतवर्ष मे जब से साहित्य का मुद्रण प्रकाशन प्रारम्भ हुआ है, विशेषकर जैन समाज मे तब ही से प्राचीन ग्रन्थो के प्रकाशन का ही बाहुल्य रहा है । उत्तरोत्तर उत्कृष्टत्तर यान्त्रिक अविष्कारो को प्रमूत करने वाले इस यन्त्र प्रधान युग मे साहित्य का मुद्रण एव प्रकाशन भी अधिकाधिक शीघ्रता एव विपुलता के साथ वृद्धि को प्राप्त होता रहा है। विविध प्रकार के बहुसख्यक शिक्षालयो की स्थापना के साथ साथ मुद्रित ग्रथो के अल्प मूल्य मे सहज सुलभ होने के कारण माक्षरता, शिक्षा, बहुविज्ञता एव पठनाभिरुचि अधिकाधिक व्यापक होती जा रही है। विभिन्न प्रकार के असख्य पुस्तकालयो तथा अनगिनत मामयिक पत्र पत्रिकामो के द्वारा उन्हे भारी प्रोत्साहन मिल रहा है। आज यह समस्या नहीं है कि 'पुस्तके तो है ही नही, पढे क्या और कैसे ? आज तो वास्तविक कठिनाई यह है कि पुस्तके तो प्रत्येक स्थान मे सहज सुलभ है, और बहुसख्या मे, उन सब ही को पढ लेना असभव सा है, और आवश्यक अयवा उपयोगी भी नहीं है । तब अपने लिए उनका किस प्रकार चुनाव करे, उनमे से कौन-कौन सी को पढे और किस-किम को न पढे ? मनुष्यो के बढते हुए ज्ञान, शिक्षा एव साहित्यिक सस्थाप्रो की मख्या वृद्धि शिक्षा प्रणाली के द्रुत विकास तथा मानव जीवन की अत्यन्त वेग के माथ वृद्धि, को प्राप्त होती हुई आवश्यकताओ और विषमताओ के कारण साहित्यगत विषय भी सख्यातीत होते जा रहे है । अपनी-अपनी रुचि, आवश्यकता एव साधनो के अनुसार पृथक-पृयक विषय मे विशेषज्ञता प्राप्त करना आवश्यक होता चला जा रहा है। पुस्तक सूचो की आवश्यकता-इन सब कारणो से आज मुद्रित प्रकाशित पुस्तको की परिचयात्मक सूचियो की आवश्यकता एव उपयोगिता बहुत अधिक हो गई है। प्रगतिशील पाश्चात्य भाषाप्रो के साहित्य के सबध मे ऐसी अनेक सूचिये विद्यमान है और निर्मित होती रहती हैं। दूसरे उनके प्रकाशको के सूची पत्र भी इतने सारपूर्ण और प्रमाणीक होते है-विषय विशेष सम्बन्धी
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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