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________________ पर सेवक धर्म न उसकी इस सका । भावुकता को भी देख जो कभी न अपने से गुरुतर, ममता, माया को लेख सका || उसने, पा कर्तव्य - प्रेरणा को किंचित भी तो देर नहीं । प्राङ्गण में रत्नों की वर्षा द्रुत करने लगा कुबेर वहीं ॥ 'ऐरावत' की ही शुराड सदृश, गिरती थी रत्नों की धारा । वह दृश्य विषय था नयनों का, कथनीय नहीं शब्दों द्वारा || परम ज्योति मोर वह रत्न राशि जिस समय वहाँ, आती थी अम्बर से नोचे । लगता, त्रिशला के श्राशा-वन, रत्नों से जाते हों सींचे ॥ या 'अच्युतेन्द्र' के श्राने को सोपान लगाया जाता हो । अथवा अम्बर से श्रवनी तक परिधान चिछाया जाता हो ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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