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________________ तेईसवाँ सर्ग बाहर तो तम ही तम था पर, भीतर भी तिमिर दिखाता था। थे नहीं जिनोत्तम इससे तम, अब आज विशेष सताता था । अतएव जला कर दीपावलि, आलोकित अवनी-गगन किये । नव दीप ज्योति से ‘परम ज्योति'की पूजा कर संस्तवन किये ॥ दीपावलि से जगमगा उठी, 'पावापुर' की हर डगर डगर । हर राजमार्ग ही नहीं, अपितु, हर गली हुई थी जगर मगर ॥ यों दीपमालिका पहिन आज, लगता था अति अभिराम नगर । उन 'परम ज्योति' की संस्मृति अब थी करा रही यह ज्योति प्रखर ॥ मङ्गल प्रदीप थे जले और, दिन भी तो उस दिन मङ्गल था। अतएव वहाँ अब रह सकता, कैसे उस दिवस अमङ्गल था ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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