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________________ सेईसवाँ सर्ग हो रहा प्रभावित प्रतिपादन की शैली से हर शङ्कालु वहाँ पर श्रोता था । निमिष मात्र में अपना भ्रम-तम खोता था ॥ अहिंसा धर्म वहाँ राजा रङ्क सभी । डसना श्री' डंक कभी ।। धर्मोपदेश यों प्रभुवर का -- नित होता था श्रविरोध वहाँ । अतएव निरन्तर होता था कितनों को ही सब्दोष वहाँ ॥ स्वीकार श्रा करते श्री नाग त्यागते वृश्चिक न मारते वनराज वहाँ पर से भोले भाले विषधर भीतर से बाहर से काले 'पावा' को भूला अभी न वह सिंहों गायों का मधुर मिलन | लगता, ज्यों वन के भाई से मिलती हो कोई ग्राम्य बहन || कामधेनु - लगते थे । उज्वल थे लगते थे । १८७
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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