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________________ बीसवाँ सर्ग. ५२३ पर जीव भ्रमण कर रहा सतत निन कर्मों के अनुसार यहाँ । इसने निगोद में रह अनन्त, दुख भोगे कई प्रकार वहाँ ॥ फिर निकल वहाँ से एकेन्द्रिय, हो कष्ट करोड़ों किये सहन । फिर कृमि, पिपीलिका, भ्रमर श्रादिके भी शरीर सब किये वहन ॥ मन रहित जन्तु यह कभी हुवा, मन बिना दुखी असहाय हुवा । मन सहित कभी वन-सिंह हुवा, औ' कभी नगर की गाय हुवा ॥ जो सबल हुवा तो निर्बल पशुको मार मार अाहार किया। इस अति हिंसा के फल स्वरूप अनुभव संक्लेश अपार किया । औ' हुवा स्वयं जब निर्बल तो प्रबलों ने असहप्र हार किये । बन्धन' छेदन औ' भेदन के दुस्सह दुख बारम्बार दिये ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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