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________________ बीसवाँ सर्ग ज्यों स्वर्ण अग्नि में पक अपना, कल्मष देता है त्याग स्वयं । त्यों श्रात्मा को निर्मल करती है, तप, ज्ञान, ध्यान की श्राग स्वयं ॥" इस अति संक्षिप्त विवेचन से, शंका 'प्रभास' ने त्यागी थी! उनके भी मन में जिन-दीक्षा--- लेने की इच्छा जागी थी ।। निज शिष्य वर्ग के सङ्ग स्वय', दीक्षित हो बने विरागी थे। तत्क्षण ग्यारहवें गणधर की, पदवी पाये बड़भागी वे ॥ यो ये दीक्षा के समारोह, उस दिन अत्यन्त विराट् हुये ॥ यह 'वीर'---महत्ता देख चकित, सत्ताधारी सम्राट् हुये ॥ वह दिवस विशेष महत्वपूर्ण, बतलाया गया पुराणों में । वह विजय शक्ति थी जिनवर में जो रहती नहीं कृपायों में ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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