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________________ ५१२ परम ज्योति महावीर. कों से मुक्ति असम्भव है, ऐसा होता अाभास मुझे। अतएव मोक्ष की सत्ता में, होता न अभी विश्वास मुझे ।। सम्बन्ध जीव औ' कर्मों कातो मैं अनादि से मान रहा । पर वह श्रात्मा के ही समान होगा अनन्त, यह जान रहा । अब आप शीघ्र ही तो मेरी इस शंका को निमूल करें । संक्षिप्त रूप में ही मुझको अब सूचित मेरी भूल करें ॥" प्रभु लगे बोलने मधु स्वर से, ज्यों ही 'प्रभास' द्विज मौन हुये। प्रभु के समक्ष अपनी शंका-- रख कर निराश भी कौन हुये ।। प्रभुवर ने कहा-"अनादि वस्तुहोवे अनन्त, यह नियम नहीं । द्विजवर ! अनादि से मलिन स्वर्ण निर्मल करना क्या सुगम नहीं ?
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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