SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४० श्राहार उसी से लूँगा मैं, जो कन्या केश विहीना हो । बद्ध, श्रृङ्खला कुलीना हो || दासत्व प्राप्त, होकर भी सती परम जिसको त्र्य दिवस अनन्तर कुछ कोदों खाने को श्राया हो । तभी ग्रहण, आहार करूँगा जब होंगी बातें इतनी सब | देखो, उन प्रभु सम्मुख, श्राती है दुस्थिति कितनी अब ? ज्योति महावीर 'औ' वही मुझे दे देने को, जिसका अन्तस् ललचाया हो ॥ यों निकल गये थे चार मास, उनको चर्यार्थ निकलते श्रव । पर नित्य लौट वे जाते थे, रह जाते निज कर मलते सब ॥ वे उक्त प्रतिज्ञा रख मन में, जाते नगरी की ओर सदा । पर कहीं प्रपूर्ण न होता था, पूर्वोक्त श्रभिग्रह घोर कदा ||
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy