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________________ सत्तरहवाँ सर्ग ४३६ वे वीतराग थे, निज भक्तों - से भी अनुराग न करते थे। इस वीतरागता का सपनेमें भी परित्याग न करते थे ॥ अन्यत्र पारणा हुई, श्रेष्ठिको सुन यह हुई निराशा थी। यद्यपि मन में रह गयी श्राज, उनके मन की अभिलाषा थी ॥ तो भी जिसने श्राहार दियाथा, उस पर व्यक्त न रोष किया । सौभाग्य सराहा उसका, निजदुर्भाग्य समझ परितोष किया । 'वैशाली' से चल 'सूसुमार' आये सिद्धार्थ-दुलारे वे। पश्चात् 'भोगपुर' गये, वहाँसे 'नन्दी ग्राम' पधारे वे ॥ फिर पहुँचे 'मेढिय गाँव' पुनः, 'कौशाम्बी' हेतु विहार किया। औ' पौष-कृष्ण-प्रतिपदा-दिवस मह घोर अभिग्रह धार लिया ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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