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________________ ૪૨૨ अति व्यर्थ हमारा गात हुवा, अति व्यर्थ हमारी बात हुई । , अति व्यर्थ कटाक्ष निपात हुवा अति व्यर्थ आज यह रोत हुई || अतएव चकित हो अंगुलियाँ, हम दाँतों तले दबातीं हैं । आयीं था हो आसक्त यहाँ, पर भक्त बनी अब जातीं हैं | इतना कह 'त्रिशला नन्दन' का, अभिनन्दन बारम्बार किया । उन काम - निकन्दन के चरणों, का वन्दन बारम्बार बारम्बार किया ॥ परम ज्योति महावीर फिर तत्क्षण अन्तर्धान हुई, औ' स्वर्ग गयीं सुरबाला वे । गयीं, पहनाने थीं वरमाल श्रायीं गाते जयमाला कारण कि वीर के नयन लुब्धथे हुये न उनके बालों पर । उन श्रात्म-रसिक के अधर लुब्ध, ये हुये न उनके गालों पर ॥ वे ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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