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________________ सोलहवाँ सर्ग नहीं, पर जागा काम - विकार निस्सार सकल व्यापार रहे । असफल हो वे पर 'वीर' पूर्ण ही विकृत हुई, श्रविकार रहे | बाँध, श्राजानु बाहु के बाहु पाये उनके भुजपाश नहीं । श्राशा तक उनको छोड़ चली, पर छोड़ी उनने आश नहीं ॥ सभी । बोलीं- "हमने था सुना श्राप, हरते दुखियों की पीर श्र' पर - उपकार - निमित्त लगादेते मन वचन शरीर सभी ॥ हम तो नवनीत पर आप बज्र से यह भी था सुना श्रापका मन, मृदु है शिरीष के फूल सदृश । पर श्राज यहाँ हम देख रहीं, वह है करील के शूल सदृश || समान बनी, बने रहे । हम झुकीं लता सी किन्तु आप, तो हैं खजूर से तने रहे ॥ ४३१
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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