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________________ सोलहवाँ सर्ग बोली कि "श्रापको हम अपने श्राने का हेतु सुनाती हैं। अतएव ध्यान से उसे सुनें, हम सब जो बात बताती हैं । मुनिनाथ ! श्रापके इस तप से, हैं मुदित हुये सुरनाथ वहाँ । फलरूप श्रापकी सेवा में, भेजा हम सबको साथ यहाँ ।। जिनकी अभिलाषा से ही तप करते हैं यहाँ मुनीश सभी । जिनके पाने को योगों का साधन करते योगीश सभी ॥ जिनकी इच्छा से युद्धों में, मरते हैं वीर अनेक यहाँ जिनकी वांछा से करते हैं, पूजक प्रभु का अभिषेक यहाँ ॥ वे स्वतः श्रापके प्राप्त हुई, इससे अब हमसे स्नेह करें। औ' देकर अपना अङ्गदान अब सफल हमारी देह करें।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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