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________________ ४२८ परम ज्योति महावीर रीझे न दिगम्बर वे जिन पर निष्फल से वे परिधान लगे। भूषण दूषण सम औ' दुकूल, अब उनको शूल समान लगे ॥ पर तत्क्षण आया ध्यान कि हमक्या कह कर यहाँ पधारी हैं ? हम इन्हें जीतने पायीं हैं, जा रहीं स्वयं पर हारी हैं । यह सोच नाचने लगीं और, गा चलीं प्रेम मय गान मधुर । पर प्रभु का हृदय न तान सकी, उनके गीतों की तान मधुर ॥ उनकी धुन में घुन नहीं लगा - पायी नूपुर की रुनन मुनन । यह देख लगे मुरझाने थे, उनकी आशा के सौम्य सुमन ।। फिर भी वे नहीं निराश हुई औ' रचा उन्होंने जाल नया । प्रभु को तप से च्युत करने को, सोचा उपाय तत्काल नया ।।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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