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________________ सोलहवाँ सर्ग सुरपति समक्ष जा प्रकट किया, "था नाथ ! आपने ठीक कहा । वे 'महावीर' हैं महाधीर, हैं महातपी, निर्भीक महा || मैं किन शब्दों में व्यक्त करूँ, उनकी धृति और निडरता को ? मैं तो विमुग्ध हो गया देखकर उनकी ध्यान- प्रखरता को || २७ मैंने तप से च्युत उन पर प्रति धूल उड़ायी थी, मिट्टी भी बरसायी पानी की झड़ी लगायी थी । करने को, थी । अहि, वृश्चिक, कर्णं खजूरों को, उनकी काया पर डाला था । पर नहीं अल्प भी भङ्ग हुवा, उनका वह ध्यान निराला था || सब व्यर्थ हुये, तप-च्युत करनेके मैंने जितने न किये | वे आत्म ध्यान में लीन रहे, ढ़ मेरु सदृश निज अङ्ग किये || " ४२५
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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