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________________ ४२२ श्रतएव धूल की वर्षा की, पर जमे रहे वे सन्त वहीं | भू-नम पर धूल दिखाती थी दिखते थे और दिगन्त नहीं || पद से शिर तक दब गये धूल में, पर न ध्यान से 'वीर' हटे । पर, यह देख नोर बरसाया वे रहे जहाँ के तहाँ डटे । यद्यपि यह दृढ़ता देख हुवा, उसको आश्चर्य महान वहाँ । पर सहसा श्राया ध्यान कि मैं आया मन में क्या ठान यहाँ ? परम ज्योति महावीर यह सोच पुनः निज माया से रच जन्तु विषैले त्रास दिया । अहि, वृश्चिक, कर्णखजूर श्रादिको छोड़ 'वीर' के पास दिया || फिर भी इनसे भयभीत नहीं, हो सके मनःप ज्ञानी । यह देख देव ने उन प्रभु की, धृति, शान्ति, वीरता पहिचानी ||
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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