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________________ ४०० कुछ ही क्षण में वह अग्नि फैल हो और अधिक विकराल गयी । बढ़ते बढ़ते वह ध्यानमग्न- प्रभु के समीप तत्काल गयी ॥ यह प्रभुवर ने, उपसर्ग जान दृढ़ मेरु समान शरीर किया । वह अग्नि ज्वाल सह लेने को मन सागर सा गम्भीर किया || वह अग्नि और भी अरुण हुई, वह दृष्य और भी करुण हुआ। यह सहनशीलता देख स्वयं, श्राश्चर्य चकित सा वरुण हुवा || परम ज्योति महावीर 'गोशालक' उठ कर भाग गया, पर नहीं 'वीर' का रोम कँपा । उनकी इस दृढ़ता को विलोक, यह धरा कँपी, यह व्योम कँपा || सारी शक्ति लगा, विशेष सुरङ्ग हुई | ज्वाल, हुई || अत्र मानो वह अग्नि अत्यन्त निकट श्रा गयी पर 'वीर' समाधि न भङ्ग
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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