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________________ पन्द्रहवाँ सर्ग अति कठिन आसनों से तप किया तथा शुभ ध्यान रह चार मास फिर की ओर पुण्य दुर्धर - किया । 'कयंगला' प्रस्थान किया || कुछ ठहर वहाँ फिर 'श्रावस्ती' जाकर धारण निज योग किया । नगरी के बाहर ध्यान लगा, सुस्थिर अपना उपयोग किया || कर ध्यान प्रपूर्ण की ओर बढ़ाये स्वीय पुर निकट एक तरु तले कर ठहर गये वे 'इलिदुग पुर' चरण | पहुँच महाश्रमण || ― ― कुछ अन्य यात्रियों ने भी तो, श्रा की व्यतीत वह रात वहीं || ' अग्नि जलायी, संग्रह करतरुत्रों के सूखे पात वहीं ॥ वैसी ही जलती अग्नि छोड़, वे गये कि ज्यों ही प्रात हुवा | पर इस प्रमाद से ध्यानस्थित, प्रभु पर भीषण उत्पात हुवा || Le
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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