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________________ ( २२ ) दृष्टि गोचर हो तो उसे सूचित करने का कष्ट करें। श्रागामी संस्करण में उसे दूर करने का प्रयास किया जायेगा। यद्यपि कृति में प्रायः सभी प्रमुख घटनाओं का समावेश करने का प्रयास किया गया है, तदपि ग्रन्थ का कलेवर बढ़ जाने के भय से अनेक प्रसङ्गों को संक्षेप रूप में ही लिखना पड़ा है। यह ग्रन्थ केवल काव्य मर्मज्ञों के ही पठन की वस्तु न बन जाये, अतः ग्रन्थ में सर्वाधिक प्रचलित छन्द का ही प्रयोग किया गया है। जिससे कि सभी पाठक सुचारु रूप से प्रवाह के साथ इसे पढ़ सके। जिस प्रकार हमें परम ज्योति महावीर के जीवन में सर्वत्र एक ही रूप वीतरागता के दर्शन होते हैं, उसी प्रकार इस महाकाव्य में भी सर्वत्र एक ही छन्द का प्रयोग किया गया है । प्रत्येक छन्द प्रसाद और माधुर्य गुण से युक्त हो यह दृष्टि श्रायोपान्त रहने के कारण सरल, सुबोध और सर्व प्रचलित शब्दावली हो उपयोग में लायी गयी है । फिर भी प्रसगवश अनेक पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग करना पड़ा है । अतएव ग्रन्थ के अन्त में परिशिष्ट संख्या १ में २८६ शब्दों का एक संक्षिप्त पारिभाषिक शब्द कोष भी दे दिया है। इससे सर्व साधारण भी महाकाव्य पढ़ते समय उन पारिभाषिक शब्दों के सम्बन्ध में साधारण जानकारी प्राप्त कर सकेंगे। इसके निर्माण में 'वृहत् हिन्दी कोष' और 'वृहत् जैन शब्दार्णव' से सहायता प्राप्त हुई है, अतः में उक्त दोनों शब्द कोषों के विद्वान सम्पादकों का आभारी हूँ। परम ज्योति 'महावीर' के विहारस्थलों का परिचय देने की दृष्टि से परिशिष्ट संख्या २ में ६२ विहारस्थलों का एक संक्षिप्त विहारस्थल नाम कोष भी दे दिया है । इसके निर्माण में श्रमण महावीर, पुस्तक से सहायता मिली है अतः इसके लेखक पं० कल्याण विजय जी गयी का भी आभार स्वीकार करता हूँ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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