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________________ ४४३४३४३%D१०८ प्रकार से पाप किया करता है, अतएव पाप के इन १०८ प्रकारों से बचने के लिये जप की माला.में १०८ दाने रखे जाते हैं । इसी उद्देश्य से इस महाकाव्य में भी प्रत्येक सर्ग में १०८ छन्द रखे गये हैं। सर्गो की संख्या इस महाकाव्य में २३ रखी गयी है, जो इस बात की सूचिका है कि जैन धर्म के प्रवर्तक वीर्य कर महावीर नहीं थे. अपितु इनके पूर्व २३ तीर्थकर और हो चुके थे, जिन्होंने अपने अपने समय में जैन धर्म का प्रचार किया था। काल दोष से परम ज्योति महावीर के अनुयायी दो भागों में विभक्त हो गये, १--दिगम्बर और २-श्वेताम्बर । इस विभाजन के कारण जैन धर्म को अनेक हानियाँ उठानी पड़ों, परस्पर के संघर्ष में दोनों की शक्तियों का तो अपव्यय हुआ हो, पर इससे वीर-चाणी के यथार्थ रूप पर भी कुठाराघात हुआ, जिससे साहित्य में भी यत्र तत्र परस्पर विरोधी कथनों का समावेश हो गया। ऐसी स्थिति में तथ्य के निणय हेतु दोनों सम्प्रदायों के कयनों पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना आवश्यक हो गया । इन समस्त विवाद ग्रस्त विषयों के सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक लिखने से एक स्वतन्त्र अन्य ही रच जायेगा, अतएव इस विषय में मौन रहना ही ठीक समझा है, पर इस प्रसंग में इतना लिख देना आवश्यक समझता हूँ कि इस कृति को यथा सम्भव प्रामाणिक और उपयोगी बनाने की भावना से मैने दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के उन सभी ग्रन्थों का गम्भीरता पूर्वक मनन किया है जो मुझे उपलब्ध हो सके हैं । एवं दोनों सम्प्रदायों के अन्यों में मुझे जो कुछ सत् , शिव, सुन्दर प्राप्त हुआ है, उससे इस महाकाव्य को अलंकृत करने का प्रयल किया है । इसमें कोई भी बात पर मोह या ईर्ष्या की भावना से नहीं लिखी गयी, अतः इस सम्बन्ध में पूर्ण सावधान रहने पर भी यदि कहीं कोई दोष निष्पच विद्वानों को
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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