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________________ बारहवाँ सर्ग जैसे अमृत का दान कभी, दे सकता विषधर नाग नहीं । वैसे सच्चा सुख दे सकता, सांसारिक सुख का राग नहीं || ४ निश्चय ही पुरजन परिजन प्राणी, इनमें फँसने से ही चारों गतियों में नाच रहा । श्रौ' सच्चा हीरा समझ जुटा हर भव में कच्चा काँच रहा ॥ क्षणभङ्ग ुर यह का नाता है । यह जीव अकेला ही श्राता है तथा अकेला जाता है | हर पुण्य यह स्वयं वह यहाँ अकेला ही भोगा करता है दुख - श्रानन्द सभी । औ' स्वयं अकेले ही गाताहै विरह-मिलन के छन्द सभी ॥ पाप की पोथी को, अकेले पढ़ता है । सब अशुभ तथा शुभ कर्मों की हर मूर्ति अकेले गढ़ता है ॥ ४. एकत्वानुप्रेक्षा । ३२३
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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