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________________ ३२२ श्रौ' नहीं रहेगा चना सदा, मेरा यह सुन्दर देह हो । अन्यत्र अलभ सुन्दरता का, जो है लोकोत्तर गेह हो ॥ श्रदीश जन्म में जिनने रत्नों की वे कहाँ गये षट् मास मिला कोई इसको न बचा सकता, इसमें किंचित् सन्देह नहीं । विपदा की बेला ने पर दिखलाता कोई स्नेह नहीं || बरसायी, धार यहीं । प्रभुवर को, आहार नहीं ॥ जब परम ज्योति महावीर जिन 'रामचन्द्र' ने 'सीता का " 'रावण' - गृह से उद्धार किया । उस गर्भवती को उनने ही वन भेज क्रूर व्यवहार किया || अतएव सकल सांसारिक सुख, मधु से लिपटी असिधारा है । इससे सुख की श्राशा करना, अतिशय अज्ञान हमारा है ॥ २. शरणानुप्रेक्षा । ३ संसारानुप्रेक्षा ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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