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________________ ३०४ 'सिद्धार्थ' कथन को सावधान हो सुनते रहे विरागी वे । पर द्रवित न राज्य - प्रलोभन से हो सके श्रहो ! बड़भागी वे ॥ - अपना वक्तव्य समाप्त सभी कर ज्यों ही चुप नरराज हुये ॥ त्यों उनसे निज निश्चय कहनेको उद्यत वे युवराज हुये ॥ बोले कि "आपको मम वचनों-से होगी यदपि निराशा ही ! पर मुझे उचित ही लगता है, कह देना निज अभिलाषा भी ॥ परम ज्योति महावीर हे तात ! राज्य के भगों से, है मुझे अल्प भी प्रीति नहीं । औ' क्षणिक चञ्चला लक्ष्मी पर मुझको मात्र प्रतीति नहीं || में अतएव राज्य - संघर्षो करना न शक्ति अवरुद्ध मुझे । कारण, पाना है मोक्ष राज्य, कर निज कर्मों से युद्ध मुझे।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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