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________________ २८९ दसवाँ सर्ग हे माँ! न अाज तक कभी श्रापने मेरी कोई हठ टाली। विश्वास अतः, गत अन्य हठोंसी यह हठ जायेगी पाली ॥ यों 'महावीर' ने 'त्रिशला' से, सूचित निज सकल विचार किये । जो कई दिनों से सोच रहेथे प्रकट वही उद्गार किये ॥ माता की ममता विफल हुई, सुन सुत के नये विचारों को। माना उस समय वृथा उनने, अपने सारे अधिकारों को ॥ छिन गया हृदय से क्षण भर में, सासू बनने का चाव सभी । लुट गये पुत्र हित नवल वधूले पाने के भी भाव सभी॥ औ' व्यर्थ राजकन्याओं केवे सुन्दर सुन्दर चित्र लगे। निष्फल विवाह हित सञ्चित वे, श्राभरण, वसन औ' इत्र लगे ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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