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________________ अाठवाँ सर्ग २३३ नख से लेकर शिख तक के सब, अङ्गों का रूप निराला था । पर निर्विकार मुख मण्डल तो, अत्यन्त मोहने वाला था ॥ जिसने भी दर्शन किया, उसीने अपनी दृष्टि सराही थी। उन 'परम ज्योति' से निज गोदी ज्योतिर्मय करनी चाही थी। 'सिद्धार्थ' सदृश ही था उनके, नयनों भौंहों का रूप अहो । पर अधर, भाल, हनु लगते थे, 'त्रिशला' के ही अनुरूप अहो । उनके तन की कोमलता कीउपमा के योग्य सरोजन थेउन जैसी सुन्दर अन्य वस्तुकी कवि कर सकते खोज न थे। हर समय विहँसते रहते थे, वे नहीं कभी भी रोते थे। चिन्तित चन उनका दर्शन कर, अपनी चिन्ताएँ खोते थे।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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