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________________ uraat a बज रहे दुन्दुभी बाजे थे, कर रहीं सुरीं थीं लास मधुर । मण्डप में, हो रही व्याप्त थी कालागुरु की शुभ वास मधुर ॥ 'सौधर्म' इन्द्र ने निज कर में, व प्रथम कलश सोल्लास लिया । ईशान इन्द्र ने भी वैसाही अन्य कलश सविलास लिया || उस समय वहाँ जो हर्ष हुवा, वह जा सकता किस भाँति लिखा ? सब वर्णन वह ही लिख सकता, जिसको वह सब प्रत्यक्ष दिखा | पर वर्णन कल्पित मत मानें, सब कुछ सम्भव सुर-लीला को । चाहे तो क्षण में सोने का - कर दें मिट्टी के टीला को || आरम्भ हुई अभिषेक किया, पर प्रभु को पहुँचा क्लेश नहीं । बाठको ! हमारे से निर्बलथे उनके देह-प्रवेश नहीं || २१
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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