SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधिमरण और शोभायात्रा-आपने आचार्य पद पर आसीन रहते संघ को अनुशासनबद्ध किया। झाबुआ निवासियों से आचार्य श्री के रूप में आपने दो माह पूर्व ही कह दिया था कि अब मेरा शरीर अधिक से अधिक दो माह तक टिकेगा। आप सर्वदा धार्मिक कार्यों में सावधान रहते थे। समाधिमरण के लिए तैयारी कर रहे थे। पौष शुक्ला द्वादशी सोमवार वि. सं. 1995 में जब दोपहर को संघ के साधु आहारचर्या से आये तब उन्होंने आचार्य श्री की समाधि वेला समीप देखी। आपको क्षय रोग था। पर दो दिन से ही था भी, इसमें संदेह होने लगा था। तीन दिन पहले से ही आपने खान-पान-प्रमाद जनित क्रियाओं को त्याग दिया था। अंतिम समय में आपने जिनेन्द्र दर्शन की इच्छा प्रगट की तो भट्टारक यशःकीर्ति ने भगवान के दर्शन कराऐ। आपने गद्गद् हो भक्ति भाव लिये कहा-'हे प्रभो! मेरे आठों कर्म नष्ट हों और मुक्ति श्री मिले।' इसी दिन संध्या के समय अत्यन्त सावधानी के साथ आपने बांदला (राजस्थान) में समाधिमरण का लाभ लिया। श्री 108 आचार्य सुधर्मसागर के स्वर्गवास का समाचार क्षणभर में दाहोद, इन्दौर, रतलाम, थांदला, झाबुआ आदि स्थानों पर पहुंचा। अतीव साज-सज्जा के साथ पद्मासन में आचार्य श्री का दिव्य शरीर नगर के प्रमुख मार्गों से निकला। सद्यःस्नात पं. लालाराज जी जलधारा देते विमान के सबसे आगे थे। मुनि और आर्यिका, श्रावक और श्राविका चतुर्विधि संघ साथ था। एक ब्राह्मण ने आचार्यश्री की पूजा की, शेखनाद कर उनको स्वर्गवासी घोषित किया। शास्त्रोक्त पद्धति से दाह-संस्कार हुआ। शोक सभा में पं. लालाराम जी ने भाषण ही नहीं दिया बल्कि अनेक पद-चिन्हों पर चलने के लिए द्वितीय प्रतिमा के व्रत भी लिये। जहां आपका अंतिम संस्कार हुआ वहां तीन दिन तक बाजे बजे, जागरण, भजन-कीर्तन हुए, महाराज की पूजा हुई। घोषणा-राज्य की ओर से घोषणा हुई-‘आचार्य सुधर्मसागरजी का स्मृति दिवस मनाने के लिए अवकाश रहेगा, हिंसा नहीं होगी।' संघ की पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 49
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy