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________________ में जिनवाणी की अविनय मानता था। फिर भी उक्त पण्डितत्रयी जिनवाणी की सुरक्षा तथा उसे घर-घर में भेजने की दृष्टि से विरोध का सामना करके भी भी आगे बढ़ती गयी। उनके प्रेस की यह विशेषता थी कि वह शुद्ध प्रेस के रूप में माना जाता था। उसमें सरेस के बेलन के स्थान पर कम्बलों के बेलन का प्रयोग किया जाता था। पं. गजाधरलाल जी, पं. श्रीनिवास शास्त्री के साथ-साथ पं. मक्खनलाल जी न्यायालंकार ने भी इस प्रेस की प्रगति में पूर्ण सहयोग किया। पं. श्रीलाल जी ने उक्त ग्रन्थों के प्रकाशन-कार्य में तो अथक सहयोग किया ही, साथ ही कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखकर उन्हें प्रकाशित किये, जिनमें संस्कृत-प्रवेशिनी (दो खण्डों में) प्रमुख है। यह ग्रन्थ संस्कृत भषा के सीखने वालों के लिये वस्तुतः प्रवेश-द्वारा मानी जाती थी। पं. श्रीलाल जी औघढ़ दानी थे। उनकी हार्दिक इच्छा थी जैन विश्वविद्यालय स्थापित करने की। लेकिन बीच में ही उनका दुखद निधन हो गया। प्रतिष्ठाचार्य पं. नारे जी इनका मूलनाम पं. कन्हैयालाल जैन था किन्तु अपने ‘नारे' गोत्र के कारण वे 'नारे' के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध रहे। इन्होंने यद्यपि ज्योतिष, आयुर्वेद, होम्योपैथी, जैनदर्शन आदि विषयों में उपाधियां प्राप्त की थीं। किन्तु उन्होंने अपनी विद्वता को मोड़ देकर केवल प्रतिष्ठा-कार्यों से ही सम्बद्ध कर लिया और लगभग 600 वेदी-प्रतिष्ठाएं, 250 सिद्धचक्र विधान कर एक कीर्तिमान स्थापित किया है। समाज ने उनके कार्यों से प्रमुदित होकर उन्हें जैनरत्न, प्रतिष्ठिा-विशारद, ज्योतिष-विशारद, वाणीभूषण, धर्मरत्न, वैध-शास्त्री, धर्मानुष्ठान-तिलक जैसी उपाधियों से विभूषित किया है। 361 पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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