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________________ मारी एक श्रेष्ठि-पुत्री मुनिराज को आहारदान दिये जाने तथा भक्तिभाव से जिनेन्द्र-पूजा-अर्चना करने के कारण किस प्रकार उसका दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल गया था। यह कथा-काव्य वस्तुतः काव्य कम है और सामाजिक इतिहास अधिक। इसमें समकालीन सामाजिक परिस्थितियों, उसकी मानयताओं तथा धार्मिक विश्वासों पर प्रकाश डाला गया है। जब सन्त जनों एवं सूफियों को भगवान के नाम की एक निर्जीव 'माला' के आधार पर रहने मात्र से भगवान के दर्शन हो सकते हैं, तो फिर भगवान की प्रत्याकृति अर्थात् मूर्ति के साक्षात् दर्शनों से भगवान् के दर्शन क्यों नहीं हो सकते हैं? वस्तुतः ब्रह्मगुलाल के समय में मूर्ति-पूजा का विरोध भी हो रहा था और समर्थन भी। अतः ब्रह्मगुलाल को मूर्त्ति-पूजा एवं सत्पात्रों को आहार-दान के समर्थन में उक्त रचना लिखनी पड़ी। इस रचना की हिन्दी उस काल की है, जब अपभ्रंश-भाषा विकसित होकर हिन्दी का रूप धारण कर रही थी। अतः हिन्दी के उद्भाव एवं उसके क्रमिक विकास तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी यह रचना अपना विशेष महत्त्व रखती है। उक्त कृपण जगावन काव्य की हस्तलिपि दिल्ली के पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर में सुरक्षित है। महामनीषि डॉ. कामता प्रसाद जी ने उन प्रतियों के आधार पर उसका सम्पादन कर 1950-60 के दशक में उसका प्रकाशन कर उसे प्रचारित किया था। . रचनाएं-ब्रह्मगुलाल की वर्तमान में निम्नलिखित रचनाएं ज्ञात एवं उपलब्ध हो सकी हैं1. त्रेपन-क्रिया (वि.सं. 1665) की यह रचना कवि द्वारा गोपाचल में बैठकर उस समय लिखी गई थी, जब वहां सम्राट अकबर के पुत्र शाहजादा सलीम अर्थात् जहांगीर का राज्य था। पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 340
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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