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________________ शुद्ध चैतन्य स्वरूपी एवं सम्यक्त्वी होने की अर्हता में चारित्र के प्रति एक कृत्रिमता का भाव ओढ़ लिया। उपादान में जो होता है उसको प्रतीक्षा में सारे निमित्त पुरुषार्थों पर पानी फेर बैठे हैं। ऐसे अध्यात्मक के एकान्त मिथ्यात्व के निरसन में आपका अपूर्व योगदान रहता था और आपने कुन्दकुन्द स्वामी के रत्नत्रय संबंधी मार्ग की अनेकान्त और समन्वयमा दृष्टि की दिशा समाज को दी। चारित्र और संयम, दान, दयाश्वरूपी धर्म का यथारूप व्याख्यान देकर एक सही दिशा प्रशस्त की। व्यक्तित्व की गरिमा-आपकी वक्तृत्व कला इतनी जादूगरी प्रभावक एवं आकर्षक रही कि लोग मंत्रमुग्ध जैन दर्शन के गूढ़ तत्वों को सरल भावों से ग्रहण कर लेते थे। विद्वतापूर्ण भाषणों से आपने समस्त भारत भूमि पर अपनी विशिष्टा की छाप अंकित कर दी। जिससे समाज ने आपको ‘विद्वद भूषण', 'व्याख्यान वाचस्पति', 'पंडित-रत्न' आदि सम्मानपूर्ण पदों से विभूषित कर अभिनन्दन पत्र एवं रजत पदक भेंट किये। एक सुयोग्य सम्पादक की गुणक्ता-आप अनेक पत्रों के सम्पादक रहे। सन् 1939 के आसपास 'जैन संदेश' के सहायक सम्पादक एवं लगभग 15 वर्ष तक 'जैन गजट' (साप्ताहिक) के प्रधान सम्पादक रहे। 1962 से आप 'जैन दर्शन' (साप्ताहिक) के प्रधान सम्पादक रहे। आपके सम्पादकीय हासिये से लिखे जाने वाले विद्वतापूर्ण एवं तर्कयुक्त लेखों से विपक्षी विचारों वाले भी लोहा मानते थे। सम्पादन कला के मर्मज्ञ लेखक-मोक्ष मार्ग प्रकाशक का आज की हिन्दी में सुन्दर सम्पादन कर उसकी महत्वपूर्ण भूमिका (प्रस्तावना) में सिद्ध किया है कि पं. टोडरमल जी ने गोम्मटसार आदि की टीका छोटी आयु में नहीं अपितु बड़ी आयु में की। संस्कृत रामचरित ग्रन्थ का हिन्दी अर्थ देकर विद्वतापूर्ण सम्पादन किया। आचार्य विद्यानन्दि कृत आप्त परीक्षा का भी सम्पादन किया। इसके अलावा कई छोटी-छोटी किन्तु पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 129
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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