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________________ आस-पास के गांवों में काफी लोकप्रिय हो गये थे। जैनकुल में जन्मे होने पर भी वे केवल उसी समाज में सीमित होकर नहीं रहे। वे प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति थे। जैन धर्म से उन्हें प्रेम था लेकिन जातिवाद से उन्हें घृणा थी। कवि का कार्यक्षेत्र विस्तृत था। एक ओर जहां वे अतिशय क्षेत्र मरसलगंज के सर्वोदयी विकास में सदा अग्रणी रहे वहीं दूसरी ओर आप राजनीति में भी सक्रिय थे। वे सच्चे समाज सेवी भी थे। हरएक की मुसीबत में सांत्वना व धैर्य का सम्बल लिये वह सबसे आगे रहते। सहानुभूति के जुबाई जमाखर्च से उनकी महत्ता नहीं थी। वे सशरीर दुःखी जनों की सेवा के लिए उनके दर पर उपस्थित हो जाते थे। फरिहा के धनी और निर्धन समान रूप से उनकी सलाह से लाभान्वित होते रहे। बोली की मिठास और व्यवहार की सरलता ने सबको वश में कर लेते थे। यों तो रत्नेन्दुजी की कवितायें समय-समय पर प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं परन्तु उनका एक बड़ा भाग अभी अप्रकाशित है। कारण नाम का मोह उन्हें था ही नहीं। आपने तीन-चार खण्ड काव्य और अनेक लम्बी कविताएं लिखीं। उनका हृदय अति संवेदनशील है। वे देश के शोषित और दलितों के दुख दर्द और उत्पीड़न से आहत हैं। कवि की गहन सहानुभूति उनके प्रति बड़े वेग से उमड़ी है। 'पैसेवाला', 'दीन', 'अतृप्त ताण्डव', 'सुख-दुःख', 'प्रेम', 'धर्म संगीत', 'अवांछित संध्या आदि कविताओं में उन्होंने त्रस्त और अभावग्रस्त जनमानस की सजीव तस्वीरें उभारी हैं। 'आप्त मीमांसा' या 'देवागम स्तोत्र' नामक संस्कृत काव्य का सवा सौ छंदों में हिन्दी अनुवाद भी किया है। 'आप्त स्तम्भ' खण्ड काव्य उनकी मौलिक रचना है। दो तीन वर्ष की लम्बी बीमारी के बाद संवत् 2006 में वे दिवंगत हो गये। पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 125
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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