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________________ समाज साहित्य सेवा-आपके संकेत मात्र से सर सेठ हुकमचन्द जी ने 1500/- की सहायता 5000/- में बदल दी। आप लगभग 16 वर्ष तक आनरेरी मजिस्ट्रेट भी मोरैना में रहे। औकाफ कमेटी में भी आपको रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आपने जिन सिद्धान्त ग्रन्थों की टीकायें लिखीं उनमें-राजवार्तिक, पंचाध्यायी, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नाम उल्लेखनीय है। आपने अनेक गंभीर उच्च कोटि के विस्तृत ट्रैक्ट लिखे जिनमें सिद्धान्त सूत्र समन्वय, सिद्धान्त विरोध परिहार मुख्य हैं। सैद्धान्तिक विरोध दूर करने हेतु आपने जो ट्रैक्ट लिखे उनमें स्पश्यास्पर्ध्य विचार, चर्चासागर पर शास्त्री प्रमाण, जैनधर्म हिन्दू धर्म से भिन्न है, मुनि विहार, कानजी मतखण्डन, आर्यभ्रम निवारण आदि हैं। उपाधियों की उपलब्धि-देहली और अम्बाला के शास्त्रार्थों में मौखिक व लिखित रूप से आपने विरोधियों को निरुत्तर कर दिया तो 'बादीभ केसरी' पदवी मिली। आपका देहली शास्त्रार्थ मुद्रित भी हुआ। जब आप महासभा पर सेढवाल अधिवेशन में सुधारकों ने संकट ला दिया तब वहां के लोगों ने आपकी प्रेरणा से सामना किया। जब आप महासभा के प्रमुख पत्र 'जैन गजट' के सहायक सम्पादक थे तब बालचन्द्र रामचन्द्र कोठारी ने आप पर इसलिए मुकदमा चलाया कि आपने पत्र में मनगढन्त बातों का पर्दाफाश किया था। न्यायाधीश ने केस को खारिज करते हुए लिखा था-“ये दूरदेश के विद्वान अपनी निस्वार्थ वृत्ति से धार्मिक सिद्धान्तों की रक्षा एवं धर्म से भी एक बड़ी सभा की रक्षा के लिए इतना कष्ट उठा रहे हैं। अपने सिद्धान्त से तिलमात्र भी नहीं हट रहे हैं। दूसरी ओर सुधारवादी फरियादी लोग समय के साथ दौड़ रहे हैं जो सिद्धान्त से सुदूर हैं।" महासभा की रक्षा करने से आपके भाई लालाराम जी को 'धर्मरत्न' और पंडित जी को 'धर्मवीर' उपाधि मिली। दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद के पैठन (महाराष्ट्र) के अधिवेशन में 'विद्यावारिधि उपाधि दी गई। जैन दर्शनाचार्य परीक्षा उत्तीर्ण करने पर गुरुवर्य गोपालदास बरैया ने संस्था की 115 पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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