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________________ महामन्त्र णमोकार अर्थ, व्याख्या ( पदक्रमानुसार ) / 131 क्रम का अन्तर होने पर भी साधु भी पूर्णतया बन्दय पचम परमेष्ठी हैं । लक्ष्य सब परमेष्ठियो का एक है और वह अटल है। ये 28 मूलगुणो के धारक हैं। समस्त अन्त बाह्य परिग्रह को त्यागकर शुद्ध मन से मुनिधर्म को अगीकृत करके हो ये साधु बनते है । ये साधु परम अहिंसक, अपरिग्रही एव तपोनिष्ठ होते हैं । आचार्य, उपाध्याय और साधु को देव या परमेष्ठी मानने मे कभीकभी श्रावको या भक्तो के मन मे शका उठती है कि अरिहन्त और सिद्ध तो आत्मस्वरूप को प्राप्त कर चुके है, निष्कर्मता भी उन्हे प्राप्त हो चुकी है अत उनका देवत्व निश्चित हो चुका है— उनका परमेष्ठीत्व प्रमाणित हो चुका, परन्तु आचार्य, उपाध्याय और साधु मे तो अभी रत्नत्रय की पूर्णता का अभाव है । आत्मस्वरूप की प्राप्ति अभी नही हुई है, अभी घातिया कर्मों का नाश भी नही किया है, अतः इन्हे देव या परमेष्ठी मानना उचित नही है । इस शका का समाधान यह है कि उक्त शका अशत: ठीक है परन्तु पूर्णतया ठीक नही है। उक्त तीन परमेष्ठी सुनिश्चित रूप से रत्नत्रय के आराधक है और अभी उनकी आराधना अधूरी है परन्तु उसकी पूर्णता सुनिश्चित है । रत्नलय -- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, एव सम्यक् चारित्र्य के अनन्त क्षेत्र है और इन सबमे देवत्व है । अत इनका आशिक पालम करने वाले और पूर्णता के प्रति कृतसकल्प उक्त आचार्य, उपाध्याय एवं माधु परमेष्ठी भी वास्तविक परमेष्ठी है । आत्म-विकास की अपेक्षा से उक्त पाचो को परमेष्ठी मानकर नमस्कार किया गया है। प्रशस्त विचारक आचार्य तुलसी जी ने भी उक्त शका का समुचित समाधान प्रस्तुत किया है - "आचार्य और उपाध्याय अरिहन्तो के प्रतिनिधि होते हैं । अरिहन्तो की अनुपस्थिति में आचार्य और उपाध्याय उनका काम करते है । इसीलिए उन्हें भी परमेष्ठी मान लिया गया । अब प्रश्न रहा साधु का । इसका सीधा समाधान यही है कि अर्हत् हो, आचार्य हो या उपाध्याय हो - ये सब पहले साधु है और बाद मे और कुछ । वास्तव मे तो साधु ही परमेष्ठी का रूप है । भगवद् गीता की टीका में एक पद्य है ***********
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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