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________________ 130 / महामन्त्र णमोकार एक वैज्ञानिक अन्वेषण "गुरु गोविन्द दोनो खडे काके लागू पाय । बलिहारी गुरु आपने गोबिन्द दिया बताय ॥ " इस साखी मे गुरु का विनय गण और महिमा वर्णित है । गुरु को देव, ब्रह्म विष्ण और महेश्वर मानने की भारतीय आस्था आज भी अक्षुण्ण है । "गुरुर्ब्रह्मा गुरुवष्णु, गुरुदेवो महेश्वर । गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम ॥" ज्ञान के पाच मद है किन्तु उनमे श्रुतज्ञान को छोड शेष चार तो स्वगुण मोनधर्मी है। श्रुतज्ञान ही स्व एव अन्य सभी का उपकार कर सकता है । अत श्रुतज्ञान को ज्ञान का जनक कहा जाता है जिससे चारो ज्ञान रूप पुत्र पैदा हो सकते है। हमे ऐसे श्रज्ञानधारी उपाध्याय महाराज से श्रुतज्ञान प्राप्त कर उत्तरोत्तर केवलज्ञान की प्राप्ति करनी है और उसके लिए एकमात्र आधार उपाध्याय परमेष्ठी है।"" विश्वास धर्म की जड़ है और इस जड की जड है। जब तक ज्ञानहीन विश्वास रहेगा तब तक प्राणी का चित्त अस्थिर रहेगा । ज्ञान नेत्र हो वास्तविक नेत्र है । यह नेत्र उपाध्याय परमेष्टी अर्थात विद्यागुरु की मत्कृपा से ही क्रियाशील होता है । मानव एक अनगढ पाषाण है उसमे अन्तनिहित प्रतिभा और ज्ञान का प्रकाशन - सौन्दर्य और देवत्व का उद्भावनउदृक्न शिल्पी गम - उपाध्याय द्वारा ही होता है । णमो लोए सव्व साहूण नरो के समस्त साधआ को नमस्कार हो । य मुनि निरन्तर अनन्त ज्ञान दर्शन चारित्र एव वीर्य आदि रूप विशुद्ध आत्मा के स्वरूप में लीन रहते है । शष चार परमेष्ठी मुनि या साधु अवस्था मे दीक्षित हाकर सुदीर्घ साधना के अनन्तर ही मुक्ति के अधिकारी होते है । अत साक्षात मुक्ति-स्वरूप इन परम विरागी साधुओ को मनसा, वाचा, कर्मणा नमस्कार हा । अरिहन्त और सिद्ध तो साक्षात् देवस्वरूप है, पन्तु साधुता अभी देव माग पर है और मुक्ति के आकाक्षी हैं। यह ● सर्वधर्मसार - महामन्त्र नवकार - पृ० 92
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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