SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 124 / महामन्त्र प्यमोकार . एक बाक्षिक अन्वेषण प्राय सक्रिय रहता है । ये दोनों सासारिक जिजीविषा के वाहक हैं और हमारे वित्त को अशान्त रखते है जब मध्य स्वर अति सुषम्ना गतिशील हो उठता है तो मन मे स्थिरता और शान्ति आती है। वास्तव मैं यहीं से अर्थात् सुषुम्ना के जागरण से हमारी आध्यात्मिक मानाका पाशुभारम्भ होता है। सुषुम्ना के जागरण और सक्रियता मे 'पमो अरिहंताणं' के मनन और जपन का अनुपम योग होता है। वास्तव में अहंत के पूर्ण ध्यान का अर्थ है स्वय से साक्षात्कार अर्थात अपनी परम - आत्मा (परमात्मा) दशा मे प्रस्थान । इस पद की एतादृश अनेक विशेषताओ की विस्तृत एव प्रामाणिक चर्चा आगे एक स्वतन्त्र अध्याय में निर्धारित है। ममो सिद्धाणं सिद्धो को नमस्कार हो मोक्ष रूपी साध्य की सिद्धि अर्थात् प्राप्ति करने वाले सिद्ध परमेष्ठियो को नमस्कार हो। जिन सिद्धो ने अपने शुक्ल ध्यान को अग्नि द्वारा समस्त-अष्टकर्म रूपी ईंधन को भस्म कर दिया है और जो अशरीरी हो गये हैं, उन सिद्धो को नमस्कार हो। जिनका वर्ण तप्त स्वर्ण (कुन्दन) के समान लाल हो गया है और जो सिद्ध शिला के अधिकारी हैं, उन सिद्धो को नमस्का रहो। पुनर्जन्म और जरा मरण आदि के बन्धनो को सर्वथा काटकर जो सदा के लिए बन्धन मुक्त हो गये हैं ऐसे उज्ज्वल सिद्ध परमेष्ठियो को नमस्कार हो। आत्मा को पूर्ण विशुद्ध अवस्था सिद्ध पर्याय मे ही प्राप्त होती है। आत्मा के अष्ट गुणो की पूर्णता से युक्त, कृतकृत्य एवं त्रैलोक्य के शिखर पर विराजमान एव वन्द्य सिद्ध परमेष्ठियो का, नमन इस पद मे किया गया है। नमनकर्ता स्वय मे उक्त गुणो को कभी ला सकेगा, या कम-से-कम आशिक रूप से ही लाभान्वित हो सकेगा, इसी भावना से वह पूर्णनिर्विकार परमेष्ठी को परम विनीत भाव से नमन कर रहा है। सिद्ध परमेष्ठी के प्रति नमन आत्मा की पूर्ण विद्धता के प्रति नमन है। मानव विकल्पो से जन्म-जन्मान्तर से जूझता चला आ रहा है। वह 1 "अप्ठविह कम्म वियना, सीदी मृदा णिर नणा णिचा। अगुणा किदच्चिा , लोयगाणिवासिणो सिद्धा ।।" गोम्मटसार जीवनकाण्ड गाथा-68
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy