SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महामना गोकार, व्याख्या (दमनुवार) / 124 धer टीका प्रथम भाग मे बरिहन्त शब्द की व्याक्या 'रज' अर्थात् रजोहनन शब्द से की गयी है।' इसका आशय यह है कि ज्ञानाचरणी एव दर्शनावरणी कर्म मानव के व्रिलोक एव त्रिकालजीवी विषय tata के अनुभाक्ता ज्ञान और दर्शन को प्रतिबन्धित कर देते हैं । जैसे धूल भर जाने पर दृष्टि मे धुंध छा जाती है उसी प्रकार ये दोनो कर्म मानव का विकास रोक देते हैं। अत इन्हे नष्ट करने के कारण ही अरिहन्त कहलाते हैं । शेष कर्म तो फिर स्वत नष्ट होते ही हैं । इसी प्रकार रहस्य अभाव के साथ भी अरिहन्त शब्द का अर्थ किया गया है। रहस्य भाव का अर्थ है अन्तराय कर्म । शास्त्रानुसार अन्तरायकर्म का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के अविनाभावी नाश का कारण है। ये व्याख्याए आचार्यों ने आपेक्षिक दृष्टि से की हैं। सातिशय पूजा अरिहन्तो की होती है इस दृष्टि से भी अरिहन्तो को नमस्कार किया जाना सम्भव है। भगवान के गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण इन पच कल्याणको मे देखो द्वारा की गयी पूजाए मानवो द्वारा की गयी पूजाओ की तुलना मे अपना वैशिष्टय रखती हैं। निश्चय नय की दृष्टि से सिद्ध अरिहन्तो से अधिक पूज्य हैं क्या कि वे अष्ट कर्मों को नष्ट करके मुक्ति प्राप्त कर चके हैं। परन्तु अरिहन्तो से जीवमात्र की जो प्रत्यक्ष दर्शन एव उपदेश का लाभ होता है वह बहुत महत्त्वपूर्ण वहारिक सत्य है । अत इसी दृष्टि से अरिहन्तो को महामन्त्र मे प्राथमिकता दी गयी है। महामन्त्र मे पच परमेष्ठी को समान रूप से नमस्कार किया गया है किसी प्रकार का भेद रखकर न्यूनाधिकता से नमन नही किया गया है । तथापि मथन विवक्षा मे तो क्रम को अपनाना अनिवार्य होता ही है । इसी प्रकार यह एक प्रकार से स्वयम्भू मन्त्र है -अनादिमन्त्र है अत इसकी महानता मे शका का कोई महत्व नहीं है। हां, इतना जरूर है कि मानव-मन पद क्रम के अनुसार अर्थ और महत्ता को घटित करता ही है, वह तर्क का सहारा भी लेता ही है । अरिहन्त -अनन्त 1 जनाद्वा अरिहन्ता । ज्ञानद्गावरणानि रजासीव । रहस्यमावाद्वा अरिहन्ता । रहस्यमन्तराय । तस्य शेष घातित्रियविनाशाfear भाविनो भ्रष्ट बीजवन्ति शक्तीकृता धातिकमणो हननादरिहन्ता ।' ' अतिशय पूजार्हत्वाद् वा अरिहन्ता"'धवला टीका प्रथम भाग 42
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy