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________________ ३८ दिगंबर जैन. NJ Awwww "बस ! बस ! रुपसुंदरी व्हारुं आ ब्रह्मज्ञान सांभळवा माटे हुं अहीं आव्यो नथी किंवा पुरुषवर्ग पापी के स्त्रीवर्ग पापी, आ बाद माटे म्हारे कांई करवानुं नथी. आ वखते हुं व्हारा प्रेमी गांडोघेलो थयो छु, म्हने म्हारा जीवनी पण परवा नथी, एटले तुं खुशी थी जो म्हारु कहेवुं मान्य करीश, तो हुं म्हारा सामर्थ्यना जोरपर आज - पोताना इच्छित हेतु माटे: वेर लोधा सिवाय रहीश नहीं !" "जारे मुडदाल" रुपसुंदरी आवेशथी बोली. "व्हारुं तो शुं, पण व्हारा जेवा जगत्ना एकंदर नीच पुरुषना एकत्र सामर्थ्यथी पण हवे आ रूपसुंदरी भ्रष्ट थनार नथी ! तुं म्हारा शरीरने आंगळी पण लगाव के तुरतज तुं नहीं के हुँ नहीं, एम बेपैकी कोई पण तेज क्षणे गतप्राण थयेला नजरे पडशे !" आ बोलतां तेणीनुं सर्वांग थरथर कांपतुं हतुं, तेणीनी आंखो अंगारा प्रमाणे लाल थई हती ! देवदत्त, पाजीपणामां एटलो निपुण हतो, पण तेणीनी आ घोर प्रतिज्ञा सांभळतांज व्हेनुं धैर्य डगमग्युं, व्हेना मनमां हवे अनेक विरुद्ध विचार घोळावा लाग्या, पोताना हेतुनी सिद्धि माटे प्रस्तुत परिस्थिति एकदम प्रतिकुळ छे एम देने जणावा लाग्युं ! सिवाय तेणीना पतिने पण तेज क्षणे आववानी व्हीक थती. इती ! आखरे आगळ पाछळनो पूरी रीते विचार करी, ते बहार नीकळ्यो अने मात्र " हुं म्हारो हेतु पार पाड्या सिवाय कदि -- पण रहेनार नथी " एवी धमकी तेणीने आपवा चुक्यो नहीं !
SR No.010133
Book TitleMahavir Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Hirachand Gandhi
PublisherMotilal Hirachand Gandhi
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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