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________________ २१६] प्राचीन जैन स्मारक । छोटे पर्वतपरसे एक तीर बड़े पर्वतपर मारे । जहांपर तीर लगेगा वहीं श्रीगोमटस्वामीके दर्शन होंगे । चामुण्डरायने ऐसा ही किया तब श्रीगोमटस्वामीकी मूर्ति प्रगट हुई, तब चामुण्डरायने दूधसे अभिषेक किया परन्तु दूध जांघोंके नीचे नहीं उतरा । उसको बड़ा आश्चर्य हुआ तब उसने अपने गुरुसे प्रश्न किया। उन्होंने विचार करके कहा कि तुम्हारी वृद्ध माता जो सफेद दूध लाई है उससे पहले अभिषेक होना चाहिये । माता एक फलका रस लाई थी जिसको गुल्लाकयी कहते हैं । बस इस थोड़ेसे दूधसे अभिषेक किया गया। यह मूर्तिके पगतक चला गया तथा वहते२ पर्वतपर फैल गया । तबसे इस वृद्ध माताका नाम गुल्लकाय जी प्रसिद्ध हुआ । चामुं. डराय बड़ा ही प्रसन्न हुआ। उसने पर्वतका नीचेका ग्राम तथा ६८ और ग्राम जो ९६००० वराह (कोई सिक्का) की आमदनीके थे, श्री बाहुबलि महाराजकी सेवाके लिये अर्पण किये । चामुंडरायने अपने गुरु श्री अनितसेनकी आज्ञासे मालाको समझाया कि पोदनापुर जाना नहीं होसक्ता है, गुरुकी आज्ञा है कि तेरा प्रण यहीं पूर्ण होगया । माताने स्वीकार किया । गुरुकी आज्ञासे चामुंडरायने नीचेके ग्रामका नाम बेलगोला प्रसिद्ध किया तथा श्री गोम्मटस्वामीके सामने ही द्वारके बाहर अपनी माता गुल्लकायज्जीकी मूर्ति पाषाणमय बनवाकर स्थापित की, यह बात लेख नं० २५० (८०) ता. १६३४ में पंचवाणके कर्त्ताने लिखी है। दोद्दय्याकत संस्कृत भुजवलिशतक कहता है कि गंगवंशी महाराज राचमल जो सिंहनन्दि मुनिके शिष्य श्रावक थे द्राविड़ देशके दक्षिण मथुरामें राज्य करते थे। इनका मंत्री ब्रह्मक्षत्र शिखा
SR No.010131
Book TitleMadras aur Maisur Prant ke Prachin Jain Smarak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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