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________________ १.८८ ] प्राचीन जैन स्मारक 1 श्रीमदेशीगणाग्रयः कणकगिरिवरे सिद्धसिंहासनेश: । प्रापद् भट्टाकलंकस्सुमरण विधिनाऽस्मिगिरौ नाकलोकम् ॥ भावार्थ - देशीगणके मुख्य स्वामी श्रीअकलंक मुनिने शाका १७३५ में पौष सुदी १३ को इस कनकगिरिपर स्वर्ग प्राप्त किया । नोट- यह कर्णाटक शब्दानुशासन के कर्ता भट्टाकलंक (सन् १६०४) के वंशमें हुए हैं इसीसे नाम एक ही है । (८) नं० १५१ सन् १४०० ई० । इसी पर्वतपर बड़ी चट्टानके पश्चिम । मूलसं० कुंद० इंग्लेश्वर वलि, पुस्तकगच्छ देशीगण के आचार्य श्रुतमुनिके सेवक व शुभचंद्रदेवके शिष्य कोयण निवासी विद्वान चंद्रकीर्तिदेवने श्रीचन्द्रप्रभकी प्रतिमा स्थापित की । (९) नं० १५२ ता० १४०० ई० ? इसी पर्वतपर चंद्रकीर्ति मुनिका शब्द कोयल से बढ़िया है । (१०) नं ० १५३ सन् १३५५ ई० । बड़ी चट्टानके पूर्व तेलगूमें। श्री मूलसं० कुन्द० देशी ० पुस्तकगच्छ हनसोगे बलिके हेमचंद्र भट्टारकके शिष्य आदिदेवने तथा ललितकीर्ति भट्टारकके शिष्य ललितकीर्तिने कणकगिरिपर विजयदेवकी प्रतिमा स्थापित की । नोट- यह विजयदेव कोई आचार्य होंगे या शायद श्रीअजित तीर्थंकर से प्रयोजन होगा । (११) नं० १५४ सन् १८३८ ई० । इसी पर्वतपर चंद्रप्रभु मूर्तिके बगलमें शाका १७६० श्रीवर्द्धमानाब्द २५०१ में देवचंद्र ( राजा वलीकथाके कर्ता ) ने अपनी वंशावली लिखी— सं० नोट - इस लेख में सन् १८३८ में जब वीर सं० २५०१ माना जाता था तब इस हिसाब से आज वीर सं० २५८९ होना
SR No.010131
Book TitleMadras aur Maisur Prant ke Prachin Jain Smarak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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