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________________ 13 रहस्यवादी का यही साध्य है। शास्त्रीय परिभाषा में इसे हम 'निर्वाण' कह सकते हैं । साध्य सदैव रहस्य की स्थिति में रहता है। सिद्ध हो जाने पर फिर वह रहस्यवादी के लिए अज्ञात अथवा रहस्य नहीं रह जाता । साधक के लिए वह भले ही रहस्य बना रहे। इसलिए तीर्थंकर ऋषभदेव, महावीर, राम, कृष्ण प्रादि की परम स्थिति साध्य है । इसे हम ज्ञेय प्रथवा प्रमेय भी कह सकते हैं । इस साध्य, ज्ञेय अथवा प्रमेय की प्राप्ति में जिज्ञासा मूल कारण है । जिज्ञासा ही प्रमेय अथवा रहस्य तत्त्व के प्रन्तस्तल तक पहुंचने का प्रयत्न करती है । सद साध्य के संदर्भ में साधक के मन में प्रश्न, प्रति प्रश्न उठते रहते हैं । 'प्रथातो ब्रह्म जिज्ञासा' इसी का सूचक है । 'नेति नेति' के माध्यम से साधक की रहस्यभावना पवित्रतम होती जाती है और वह रहस्य के समीप पहुंचता चला जाता है । फिर एक समय वह अनिर्वचनीय स्थिति को प्राप्त कर लेता है—'यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।' यह अनुभूतिपरक जिज्ञासा ही अभिव्यक्ति के क्षेत्र में काव्य बनकर उतरती है । इसी काव्य के माध्यम से सहृदय व्यक्ति साधारणीकरण प्राप्त करता है और शनैः शनैः साध्य दशा तक बढ़ता चला जाता है । प्रतएव इस प्रकार के काव्य में व्यक्त रहस्यभावना की गहनता भौर सघनता को ही बथार्थ मे काव्य की विधेयावस्था का केन्द्र बिन्दु समझना चाहिए । परम गुह्य तत्व रूप रहस्य भावना के वास्तविक तथ्य तक पहुंचने के लिए साधक को कुछ ऐसे शाश्वत साधनों का उपयोग करना पड़ता है जिनके माध्यम से वह चिरन्तन सत्य को समझ सके । ऐसे साधनो में मात्मा और परमात्मा के विशुद्ध स्वरूप पर चिन्तन और मनन करता विशेष महत्वपूर्ण हैं । जैन धर्म में तो इसी को केन्द्र बिन्दु के रूप मे प्रतिष्ठित किया गया है। इसी को कुछ विस्तार से समझाने के लिए वहां समूचे तत्वों को दो भागों में विभाजित किया गया हैजीव और जीव । जीव का अर्थ ग्रात्मा है और प्रजीव का विशेष सम्बन्ध उन पौद्गलिक कर्मों से है जिनके कारण यह भ्रात्मा संसार मे बारम्बार जन्म ग्रहण करता रहता है । इन कर्मों का सम्बन्ध प्रात्मा से कैसे होता है, इसके लिए mira utर बन्ध शब्द प्राये हैं तथा उनसे म्रात्मा कैसे विमुक्त होता है, इसके लिए संवर और निर्जरा तत्वों को रखा गया है । मात्मा का कम से सम्बन्ध जब पूर्णतः दूर हो जाता है जब उसका विशुद्ध श्रीर मूल रूप सामने घाता है। इसी को मोक्ष कहा गया है । इस प्रकार रहस्य भावना का सीधा सम्बन्ध जैन संस्कृति में उक्त सप्त तत्वों पर निर्भर करता है । इन सप्त तत्वों की समुचित विवेचना ही जैन ग्रन्थों की मूल भावना है । आचार शास्त्र और विचार शस्त्र इन्हीं तत्वों का विश्लेषणा करते हुए दिई देते हैं। मध्यात्मवादी ऋषि महर्षियों मोर विद्वान मात्रायों ने रहस्यभावना
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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