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________________ उपर्युक्त संस्थात्मक साहित्य में से कुछ मनोरम पद्य नीचे उदघृत हैं। बनारसीदास विरचित शानबावनी के निम् पद्य में प्रात्मज्ञानी की अवस्था और उसके जीवन की गतिविधियों का चित्रण देखते ही बनता हैऋतु बरसात नदी नाले सर जोर चढ़, बाद नाहिं मरजाद सागर के फैल की। नीर के प्रवाह तृण काठवृन्द बहे जात, चित्रावेल प्राइ चढ़े नाहीं कहू गेल की। बनारसीदास ऐसे पंचन के परपंच, रंचक न संक प्राव वीर बुद्धि छैल की। कुछ न प्रनीत न क्यों प्रीति पर गुण केती, ऐसी रीति विपरीति अध्यातम शैली ॥ इसी प्रकार भैया भगवतीदास ने अमित्यपच्चीसिका के एक पद्य में स्पष्ट किया है कि दुर्लभ नरभव को पाकर सच्चा प्रात्मबोध न होने से प्राणी भौतिक सुखों में उलझा रहता है। नर देह हाये कहा, पंडित कहाये कहा, तीर्थ के न्हाये कहा तटि तो न जैहै रे । लच्छि के कमाये कहा, मच्छ के अघाये कहा, छष के घराये कहा छीनता न ऐहें रे ।। केश के मुडाये कहा भेष के बनाये कहा, जोवन के आये कहा, जराहू न खैहै रे । प्रम को विलास कहा, दुर्जन मे वास कहा, प्रातम प्रकाश विन पीछे पछितैहै रे ।। गातिकाव्य हिन्दी जन साहित्य में गीतिकाव्य का प्रमुख स्थान रहा है। उसमें वैयक्तिक भावात्मक अनुभूति की गहराई, प्रात्मनिष्ठता, सरसता और संगीतात्मकता आदि तत्वों का सनिवेश सहज ही देखने को मिल जाता है। लावनी, भजन, गीत, पद प्रादि प्रकार का साहित्य इसके अन्तर्गत पाता है। इसमें अध्यात्म, नीति, उपदेश, दर्शन, पैराग्य, भक्ति प्रादि का सुन्दर चित्रण मिलता है। कविवर बनारसीदास, बुधजन, धानत्तराय, दौलतराम, भैया भगवतीदास मादि कवियों का गीति साहित्य विशेष उल्लेखनीय है । जैन गीतिकाव्य सूर, तुलसी, मीरा भादि के पद साहित्य से किसी प्रकार कम नहीं। भक्ति सम्बन्धी पदों में सूर, तुलसी के समान दास्प-सस्य भाव, दीनता, पश्चात्ताप मादि भावों का सुन्दर और सरस चित्रण है। जैन कवियों के प्राराध्य राम के समान शील, शक्ति मोर सौन्दर्य से समन्वित या समान
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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