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________________ risai पाग संकुल चाले, सो कियो मसकं चाले । परसरण प्ररहं दुख पायो, तिनि अंकुश पावा पायो || परसा रस कीचक पूरय, गहि भीम शिलातल चूर्यो । परसरण रस रावण नामइ, वारची लंकेसुर रामद | परसरण रस शंकर राज्यौ तिय प्राये नट ज्यो नाच्यो ॥ मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य में 'बारहमासा' बहुत लिखे गये हैं। उनमें से कुछ तो निश्चित ही उन्चकोटि के हैं । कवि विनोदीलाल का नेमि राजुल बारहमासा यहाँ उल्लेखनीय है जिसमें भाव और भाषा का सुन्दर समन्वय दिखाई देता है । यहाँ राजुल अपने प्रिय नेमि को प्राप्य पौष माह की विविध कठिनाइयों का स्मरण दिलाया है पिय पौष में जाड़ो परंगी बनो, बिन सौंढ़ के शीत कैसे भर हो । कहा प्रोढेगे शीत लगे जब ही, किधों पातन की ध्रुवनीघर हो || तुम्हरो प्रभुजी तन कोमल है, कैसे काम की फौजन सौंलर हो । जब प्रावेगी शीत तरंग सबै, तब देखत ही तिनको डर हो । संख्यात्मक काव्य मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने संख्यात्मक साहित्य का विपुल परिमाण में सृजन किया है । कहीं यह साहित्य स्तुतिपरक है तो कहीं उपदेश परक, कहीं अध्यात्मपरक है तो कहीं रहस्य भावना परक । इस विधा में समासशैली का उपयोग दृष्टव्य है । लावण्यसमय का स्थूलभद्र एकवीसो (सं. 1553), हीरकलम सिहासनवतीसी (सं. 1631), समयसुन्दर का दसशील तपभावना संवादशतक (सं. 1662), वासो कामत (सं. 1645), उदयराज की गुणवाबनी (सं. 1676), बनारसीदास की समकितवत्तीसी (सं. 1681), पांडे रूपचन्द का परमार्थ दोहाशतक, प्रानन्दघन का श्रानन्दघन बहत्तरी (सं. 1705), पाण्डे हेलराज का सितपट बौरासी बोल (सं. 1709 ), जिनरंग सूरि की प्रबोधवावनी (सं. 1731), रायमल्ल की प्रात्मaait (17ai aat), बिहारीदास की सम्बोषपंचासिका (सं. 1758), भूमरदास का जैनशतक (सं. 1781), बुधजन का चर्चाशतक प्रादि काव्य अध्यात्मरसता के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं। 1. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 87 मिल बारहमासा, पृ. 14 2.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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