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________________ संग्राम, सुमति कुमति का झगड़ा, सुम्बधी संचार सयंम कर्म संवाद कृपानारी संवाद, पन्चेन्द्रिय संवया रायस मोरी व ज्ञान व चारिव संवाद, प्रादि बीसों रचनाएँ हैं जिनमें रहस्यापकता के तस्य इतने हुए हैं कि संवाद गौरग हो गये हैं । इन यात्मिक काव्यों में कवियों ने जैन सिद्धान्तों को सरस भाषा में प्रस्तुत किया है। इन सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने में एक और जहाँ दार्शनिक छटा दिखाई देती है वहीं काव्यात्मक भाव और भाषा का सुन्दर समन्वय भी मिलता है । विलास काव्य इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। कवि बनारसीदास ने 'परमार्थहिंडोलना' मैं आत्मतत्त्व का विवेचन काव्यात्मक शैली में चित्रित किया है- सहज हिंडना हरख हिडोलना, भुकत चेतनराव । जहाँ धर्म कर्म संवेग उपजत, रस स्वभाव ॥ जहं सुमन रूप अनूप मंदिर, सुरुचि भूमि सुरंग । तहं ज्ञान दर्शन खंभ प्रविचल, चरन झाड अभंग ॥ मरुवा सुगुन परजाय विचरन, भौर विसल विवेक । व्यवहार निश्चय नय सुदण्डी, सुमति पटली एक ॥11 afa भगवतीदास ने ब्रह्मविलास की शतमष्टोत्तरी में विशुद्ध आत्मा कम के कारण किस प्रकार अपने मूल स्वभाव को भूल जाता है इसका सरस चित्रण खींचा है कायासी जु नगरी में चितानन्द राज करें, मायासी जु रानी पं मगन बहु भयो है। मोहसो है फोजदार क्रोध सो है कोतवार, लोभ सो वजीर जहाँ लूसिवे को रहते है ।। उदैको जू काजी माने, मान को प्रदलजायौं, कामसेवा errata माइ वाक्चे को है । ऐसी राजधानी में अपने गुरख भूल गयौ, सुषि जब माई तवं ज्ञान प्राय गयो है ||291 विज्ञान के महत्व को अनेक वृष्टान्तों के माध्यम से कविवाद बनारसीदास ने नाटक समयसार में स्पष्ट करने का जो प्रयत्न किया है वह स्पृहणीय है-जैसे रजसोधा रज सोषिक दरब काढे, कनक काढि वाहत उपक पावक
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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