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________________ सीता हालों में छोटे-छोटे उन्हे लेकर टोली नृत्य करते हैं। रास में भी लगभग यही होता है । हिण्डोलना होली मोर फागु में तो कवियों ने आध्यात्मिकता का सुन्दर पुट दिया है। कहीं-कहीं सुन्दर रूपक तत्व भी मिलता है । 6. वेfesto राजस्थान की परम्परा से गुंधा हुआ है। वहां चारण कवियों ने इसका उपयोग किया है । बाद में वेलि काव्य का सम्बन्ध भक्ति काव्य से हो गया । जैन कवियों ने इन वेलि arari में afte तत्व विवेचन और इतिहास प्रस्तुत किया है । 7. संख्यात्मक और वर्णनात्मक साहित्य का भी सृजन हुआ है । छन्द संख्या के आधार पर काव्य का नामकरण कर दिया जाना उस समय एक सर्वसाधारण प्रथा थी । जैसे मदनशतक, नामवावनी, समकित वत्तीसी प्रादि । 8. बारहमासा यद्यपि ऋतुपरक गीत है पर जैन कविकों ने इसे आध्यात्मिकसा बना लिया है। नेताथ के वियोग मे राजुल के बारहमास कैसे व्यतीत होते इसका कल्पनाजन्य चित्रण बारहमासों का मुख्य विषय रहा है। पर साथ ही अध्यात्मबारहमासा, सुमति कुमति बारहमासा आदि जैसी रचनायें भी उपलब्ध होती है । 1. प्राध्यात्मिक काध्य कतिपय प्राध्यात्मिक काव्य यहां उल्लेखनीय हैं-रत्वकीर्ति का प्राराधना प्रतिसार ( सं 1450), महमन्दि का पाहुड़ दोहा (सं. 1600), ब्रह्मगुलाल की त्रेपन किया ( सं 1665), बनारसीदास का नाटक समयसार (सं. 1693) मोर बनारसीविलास, मनोहरदास की धर्म परीक्षा (सं. 1705), भगवतीदास का ब्रह्मविलास ( सं 1755 ), विनयविजय का विनयविलास ( सं 1739) बानसराय की पंचासिक तथा धर्मक्लास (सं. 1780), भूधर विलास का भूषविलास, दीपचंद माह के अनुभव प्रकास प्रादि (सं. 1781), देवीदास का परमानन्य बिलास धौर पदपंकत (सं. 1812), टोडरमल्ल की रहस्यपूर्ण बिट्ठी (सं. 1811), भजन का बुजविलास, पं. भागचन्द की उपदेश सिद्धान्त माला (सं. 1905), छत्रपति का मनमोहन पंचशती सं. 1905) प्रादि । संवाद भी एक प्राचीन विधा रही है जिसमें प्रश्नोत्तर के माध्यम से प्राच्याfree free or समाधान किया जाता था। नरपति (16वीं शती का दंतचि संवा, सह सुन्दर (सं. 1572) का प्रांख-कान संवाद, यौवन जरा संवाद जैसी माकर्षक ऐसी सरस रचनाएँ हैं जिनमें दो इन्द्रियों में संवाद होता है विन अध्यात्म में होती है । अन्य रचनाओं में रावण मन्दोदरी संवाद (स) 1562), मोती कम्पालिया संवाद, उद्यम कर्म संवाद, समकितशील संवाद, सिगोतम संवाद- मन
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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