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________________ बरा से युक्त पं. भगवतीदास का जोगीराम की मादाय है जिसीक को अपने अन्दर विराजमान चिदानन्द की शिवनायक बन कर तारसमुद्र से पार होने की अभिव्यंजना की है पखहू ही तुम पेखहु माई, जोगी जंगहि साई । घट-घट अन्तरि पसई चिदानन्द, अलखु न मंखिए कोई ।। भव-वन-भूल रह्यो भ्रमिरोक्लु, सिवपुर सुध विसराई । परम-प्रतीन्द्रिय शिव-सुख-जि करि, विषयनि रहि-सुभाइ । मनन्त चतुष्य-मुख-मया राजहि. तिन्हकी हउ बलिहारी। मानिधरि ध्यानु बयह शिवनायक, जिङ' उतउह भवपासी ॥ इसी प्रकार भक्ति रस से ओतप्रोत सहजकीति के 'सुदर्शनप्रेष्ठिबासकी मिना पंक्तियां दृष्टव्य हैं : केवल कमलाकर सुर, कोमल बचन विलास, कवियण कमल दिवाकर, पगमिय फल विधि पास। सुरवर किंनर बर भ्रमर, सुन चरणकंज जास, सरस वचन कर सरसबी, नमीयइ सोहाग वास । जासु पसायइ कवि लहर, कविजनमई जसवास, हंसगमणि सा भारती, देउ मुझ वचन विलास । इस प्रकार जैन रासा साहित्य एक ओर जहां ऐतिहासिक अथवा पौराणिक महापुरुषों के चरित्र का चित्रण करता है वही साथ ही भाध्यात्मिक अथवा धार्मिक प्रादर्शों को भी प्रस्तुत करता है । जैनों की धार्मिक रास परम्परा हिन्दी के मादिकाल से ही प्रवाहित होती रही है। मध्ययुगीन रासा साहित्य मे मादिकाल रासा साहित्य की अपेक्षा भाव पार भाषा का अधिक सौष्ठव दिखाई देता है। प्राध्यात्मिक रसानुभूति की दृष्टि से यह रासा साहित्य प्रषिक विवेचनीय है। 2. रूपक काय माध्यात्मिक रहस्या को अभिव्यक्त करने का सर्वोत्तम साधन प्रतीक मौर रूपक होते हैं। और कवियों ने सांसारिक चित्रश, मात्मा की बुद्धामुख अवस्था, सुखदुःख की समस्यायें, राक्षात्मक विकारमौर लाखभंगुरता के दृश्य जित सूक्ष्मान्वेक्षण मौर गहन अनुमति के साथ प्रस्तुत किये हैं, यह अभिनन्दनीय है। हक काव्यों का उद्देश्य वीरता की सहल प्रवृत्ति का मोक मांगलिक चित्रण करता रहा है। मात्मा की कामावि क्षमता मिजाक प्राविक बान से किस प्रकार प्रसित होकर भवसागरमल करता रहता है भोर किस प्रकार उससे मुक्त होता है, इस प्रवृत्ति मौर मितिमार्ग का विवाह कर जैन कषियों ने मामा की शक्ति को
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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